शिक्षा का मंदिर या मुनाफे की दुकान: बच्चों की आड़ में कमीशन का खेल


अब शिक्षा नहीं, व्यापार बन गए हैं स्कूल! किताब-कॉपी से लेकर टिफिन तक में चलता है कमीशन का खेल

विशेष रिपोर्ट | NGV PRAKASH NEWS
कभी ज्ञान का मंदिर कहे जाने वाले स्कूल अब कमाई का अड्डा बन चुके हैं। शिक्षा के नाम पर आज जो हो रहा है, वह न सिर्फ बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ है, बल्कि माता-पिता की जेब पर भी बेहिसाब बोझ है। अब स्कूल एक संस्थान नहीं, बल्कि एक ऐसा बिजनेस मॉडल बन चुका है जहां हर चीज़ में कमीशन का खेल चलता है — किताबों से लेकर जूतों तक।

किताबों और कॉपियों पर भारी कमीशन
बाजार में उपलब्ध किताबें स्कूलों के द्वारा निर्धारित दुकानों से खरीदने के लिए बाध्य किया जाता है। किताबों पर 60 से 70 फीसदी और कॉपियों पर 70 से 80 फीसदी तक का भारी-भरकम कमीशन लिया जाता है। इससे किताबों की कीमतें दोगुनी हो जाती हैं, और अभिभावक चाहकर भी कहीं और से खरीदारी नहीं कर सकते।

सिर्फ किताबें नहीं, हर सामान पर मुनाफा
स्कूल बैग, टाई, बेल्ट, जूते, मोजे, टिफिन बॉक्स, यहां तक कि स्कूल ड्रेस तक — हर चीज़ उसी दुकान से लेनी होती है जिसे स्कूल ने ‘अनुशंसित’ किया होता है। ये अनुशंसा असल में एक ‘डील’ होती है, जिसमें स्कूल को हर वस्तु पर मोटा कमीशन मिलता है। कई स्कूल तो बच्चों को वही टिफिन लाने के लिए कहते हैं जो उन्हें बताई जाती है — मतलब कि अब बच्चों का खाना भी स्कूल तय करेगा!

हर हफ्ते कोई नया खर्च
स्कूलों में हर हफ्ते कोई न कोई प्रोग्राम या एक्टिविटी होती है, जिसके नाम पर कभी 50 तो कभी 200 रुपये तक लिए जाते हैं। ‘फैंसी ड्रेस डे’, ‘फूड फेस्टिवल’, ‘कलर डे’, ‘स्पेशल असेम्बली’, जैसे कार्यक्रमों की लंबी सूची है — और हर एक का मतलब है माता-पिता से और पैसे वसूलना।

फीस के नाम पर अत्याचार
एक ओर बच्चों की सालाना फीस हजारों में होती है, वहीं दूसरी ओर स्कूल हर दो-तीन महीने में ‘डवलपमेंट फीस’, ‘स्मार्ट क्लास फीस’, ‘आईडी कार्ड फीस’, और न जाने किन-किन मदों में पैसे मांगते रहते हैं। इतना खर्च करने के बावजूद बच्चों को ट्यूशन के लिए भेजना पड़ता है — यानी शिक्षा की गुणवत्ता पर भी सवाल उठता है।

स्कूल अब शिक्षा का साधन नहीं, कमाई का जरिया बन गया है
आज स्कूलों का उद्देश्य बच्चों को बेहतर नागरिक बनाना नहीं, बल्कि अपने प्रबंधन और मालिकों के लिए मोटा मुनाफा कमाना बन गया है। शिक्षा, जो कभी एक सेवा थी, अब एक ऐसा उत्पाद बन चुकी है जिसे खरीदने के लिए माता-पिता को मजबूर किया जा रहा है।

यह सवाल अब हर अभिभावक के मन में उठ रहा है — क्या वाकई आज के स्कूल बच्चों के भविष्य को गढ़ रहे हैं या सिर्फ अपना खजाना भर रहे हैं?

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  • Gyan Prakash Dubey

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