

गांवों में समूह लोन बना पर्सनल लोन: कर्ज के जाल में फंसते लोग, छूटती पढ़ाई, बिकती संपत्ति
कभी महिलाओं के सामूहिक उत्थान और ग्रामीण उद्यमिता का प्रतीक माने जाने वाले समूह लोन यानी माइक्रोफाइनेंस अब गांवों में एक नई और खतरनाक दिशा पकड़ चुका है। समूह आधारित यह लोन अब व्यक्तिगत खर्चों की पूर्ति का साधन बन गया है। मोटरसाइकिल खरीदना हो, शादी ब्याह करना हो, या फिर सिर्फ समाज में स्टेटस दिखाना हो—इन सब जरूरतों ने समूह लोन को पर्सनल लोन में तब्दील कर दिया है। नतीजा, गांव के आम लोग कर्ज के जाल में तेजी से फंसते जा रहे हैं और फिर न चुकता करने की स्थिति में धरना प्रदर्शन कर रहे हैं।
लोन तो लिया पर बिजनेस नहीं किया
आज बड़ी संख्या में लोग लोन तो ले रहे हैं, लेकिन इनका इस्तेमाल किसी व्यवसाय या जीविका के साधन में नहीं कर रहे। उलटे इन पैसों से घर की साज-सज्जा, शादी-विवाह, या महंगे मोबाइल और बाइक्स खरीदी जा रही हैं। यही कारण है कि लोग एक लोन से दूसरा लोन चुकाने के चक्रव्यूह में फंसते जा रहे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 27% लोग पुराने लोन चुकाने के लिए नए लोन ले रहे हैं। कई परिवारों में हालात ऐसे बन चुके हैं कि उन्हें बच्चों की पढ़ाई तक छुड़वानी पड़ी है।
माइक्रोफाइनेंस का बदलता चेहरा
45 अरब डॉलर का माइक्रोफाइनेंस सेक्टर कभी ग्रामीण भारत की रीढ़ माना जाता था। मगर आज यही सिस्टम एक वित्तीय खतरे में तब्दील हो चुका है। ET की एक रिपोर्ट के अनुसार, 91 से 180 दिनों तक लोन की किस्त न चुकाने वालों की संख्या 2023 में 0.8% से बढ़कर अब 3.3% हो गई है। यानी डिफॉल्ट का खतरा लगातार बढ़ रहा है।
समूह का सामाजिक दबाव टूटा
पहले 4-6 महिलाओं के ग्रुप को लोन दिया जाता था। सभी सदस्यों की ज़िम्मेदारी होती थी कि किस्त समय पर जाए, और यदि कोई न दे तो बाकी मिलकर उसे समझाएं। यह सामाजिक दबाव सिस्टम की रीढ़ थी। लेकिन कोविड के बाद यह एकजुटता टूटी, और अब लोग अपने-अपने स्तर पर कर्ज ले रहे हैं—बिना किसी सामूहिक निगरानी के।
गांवों में मुश्किल है सही जांच
शहरी क्षेत्रों में डिजिटल ट्रांजेक्शन से उधारकर्ता की स्थिति का आकलन आसान हो गया है, मगर ग्रामीण भारत में अब भी नगद लेनदेन हावी है। इससे माइक्रोफाइनेंस कंपनियों के लिए यह जान पाना कठिन हो गया है कि परिवार की वास्तविक आमदनी कितनी है और वे कितने बोझ उठाने लायक हैं।
RBI की नीतियों ने खोले लोन के दरवाजे
2022 में भारतीय रिजर्व बैंक ने माइक्रोफाइनेंस की परिभाषा बदलते हुए इसे सालाना 3 लाख रुपये आय वाले परिवारों तक बढ़ा दिया। साथ ही लोन की अधिकतम सीमा को भी हटाकर उसे आय के 50% तक कर दिया गया। अब कोई भी परिवार एक से अधिक कंपनियों से लोन ले सकता है, और ब्याज दर भी बाजार के हवाले है। इससे माइक्रोफाइनेंस पर से वो नियंत्रण हट गया जो पहले सिस्टम को बैलेंस किए हुए था।
स्टेटस का दबाव, जिंदगी पर भारी
Dvara रिसर्च के इंद्रदीप घोष कहते हैं—”हर समाज में स्टेटस दिखाने की चाह होती है, लेकिन जब कर्ज लेना आसान हो जाए और उसकी जांच सख्त न हो, तो यह प्रवृत्ति समाज को खतरे में डाल देती है।” गांवों में आज वही हो रहा है। लोग कर्ज लेकर शादी में खर्च कर रहे हैं, बाइक खरीद रहे हैं, और यह सोच रहे हैं कि बाकी बाद में देख लेंगे। लेकिन जब किस्तें नहीं चुकतीं तो वही समाज, वही लोग इन्हें उंगली दिखाने लगते हैं।
निष्कर्ष
आज जरूरत है कि माइक्रोफाइनेंस लोन को फिर से उसके मूल उद्देश्य की ओर मोड़ा जाए—व्यवसाय, आत्मनिर्भरता और जरूरतमंदों की सहायता। यदि यह uncontrolled पर्सनल लोन में बदलता रहा, तो कर्ज के इस दलदल से निकल पाना बहुत मुश्किल होगा।
NGV PRAKASH NEWS
